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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 26
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यस्ते॑ऽअ॒द्य कृ॒णव॑द् भद्रशोचेऽपू॒पं दे॑व घृ॒तव॑न्तमग्ने। प्र तं न॑य प्रत॒रं वस्यो॒ऽअच्छा॒भि सु॒म्नं दे॒वभ॑क्तं यविष्ठ॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। ते॒। अ॒द्य। कृ॒णव॑त्। भ॒द्र॒शो॒च॒ इति॑ भद्रऽशोचे। अ॒पू॒पम्। दे॒व॒। घृ॒तव॑न्त॒मिति॑ घृ॒तऽव॑न्तम्। अ॒ग्ने॒। प्र। तम्। न॒य॒। प्र॒त॒रमिति॑ प्रऽत॒रम्। वस्यः॑। अच्छ॑। अ॒भि। सु॒म्नम्। दे॒वभ॑क्त॒मिति॑ दे॒वऽभ॑क्तम्। य॒वि॒ष्ठ॒ ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्तेऽअद्य कृणवद्भद्रशोचे पूपन्देव घृतवन्तमग्ने । प्र तन्नय प्रतरँवस्योऽअच्छाभि सुम्नन्देवभक्तँयविष्ठ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। अद्य। कृणवत्। भद्रशोच इति भद्रऽशोचे। अपूपम्। देव। घृतवन्तमिति घृतऽवन्तम्। अग्ने। प्र। तम्। नय। प्रतरमिति प्रऽतरम्। वस्यः। अच्छ। अभि। सुम्नम्। देवभक्तमिति देवऽभक्तम्। यविष्ठ॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 26
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (विद्वान गृहस्थास उद्देशून) (भद्रशोचे) तेजस्वी भद्ररुपधारी (यविष्ठ) युवा आणि (देव) दिव्य भोगासाठी खास सामग्री देणाऱ्या हे (अग्ने) विद्वान गृहस्थ महोदय, (य:) जो (ते) आपणांस आवडणारे (घृतवन्तम्‌) घृत आदी पदार्थांदच्या साहाय्याने तयार केलेले (अभि) सर्वदृष्ट्या (सुम्नम्‌) आनंददायक आणि (देवभक्तम्‌) विद्वानांना (पाहुण्यांसाठी) वाढण्यास योग्य असे (अपूपम्‌) भोज्य पदार्थ (पुरी, मिष्टानादी) आहेत, असे (वस्य:) अत्यंत प्रिय व अ(अच्छ) उत्तम स्वादिष्ट पदार्थ जो (कृणवत्‌) तयार करू शकतो, (तम्‌) त्या (प्रतरम्‌) पाचक (सैंपाकी वा आचारी) मनुष्यास हे गृहस्थ महोदय, तुम्ही (अद्य) आज (प्रणय) प्राप्त करा (घरात असा कुशल सैंपाकी ठेवा) ॥26॥

    भावार्थ - भावार्थ - मनुष्यांनी अशा कुशल मनुष्यास पाचक म्हणून ठेवावे की ज्याने अनुभवी व अतिकुशल जनांकडून सैंपाक करण्याचे प्रशिक्षण घेतले आहे, जो अति उत्तम स्वादिष्ट व्यंजन तयार करू शकतो. तसेच रुचकर भाज्या व अन्य स्वादिष्ट पदार्थ तयार करू शकतो. ॥26॥

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