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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - महाबृहती सूक्तम् - भूमि सूक्त

    यो नो॒ द्वेष॑त्पृथिवि॒ यः पृ॑त॒न्याद्योभि॒दासा॒न्मन॑सा॒ यो व॒धेन॑। तं नो॑ भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न॒: । द्वेष॑त् । पृ॒थि॒वि॒ । य: । पृ॒त॒न्यात् । य: । अ॒भि॒ऽदासा॑त् । मन॑सा । य: । व॒धेन॑ । तम् । न॒: । भू॒मे॒ । र॒न्ध॒य॒ । पू॒र्व॒ऽकृ॒त्व॒रि॒ ॥१.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नो द्वेषत्पृथिवि यः पृतन्याद्योभिदासान्मनसा यो वधेन। तं नो भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न: । द्वेषत् । पृथिवि । य: । पृतन्यात् । य: । अभिऽदासात् । मनसा । य: । वधेन । तम् । न: । भूमे । रन्धय । पूर्वऽकृत्वरि ॥१.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. है (पृथिवि) = भूमिमातः ! (यः नः द्वेषत्) = जो भी हमसे द्वेष करता है, (यः पृतन्यात्) = जो सेना के द्वारा हमपर आक्रमण करता है, (य:) = जो (मनसा अभिदासात्) = मन से हमारा उपक्षय करता है-मन से हमारा अशुभ चाहता है, (यः वधेन) = जो हनन-साधन आयुधों से हमारा क्षय करता है, हे (पूर्वकृत्वरि) = शत्रुकृन्तन में सबसे प्रथम स्थान में स्थित (भूमे) = भूमिमातः ! (नः तम्) = हमारे उस द्वेष्टा को (रन्धय) = वशीभूत कर अथवा विनष्ट कर [rend]|

    भावार्थ -

    हे भूमिमातः! कुछ ऐसी व्यवस्था कर कि कोई हमारा 'द्वेष्टा, आक्रान्ता, अशुभेच्छ व हन्ता' न हो।

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