अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
यस्यां॑ वृ॒क्षा वा॑नस्प॒त्या ध्रु॒वास्तिष्ठ॑न्ति वि॒श्वहा॑। पृ॑थि॒वीं वि॒श्वधा॑यसं धृ॒ताम॒च्छाव॑दामसि ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑म् । वृ॒क्षा: । वा॒न॒स्प॒त्या: । ध्रु॒वा: । तिष्ठ॑न्ति । वि॒श्वहा॑ । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽधा॑यसम् । धृ॒ताम् । अ॒च्छ॒ऽआव॑दामसि ॥१.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा। पृथिवीं विश्वधायसं धृतामच्छावदामसि ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याम् । वृक्षा: । वानस्पत्या: । ध्रुवा: । तिष्ठन्ति । विश्वहा । पृथिवीम् । विश्वऽधायसम् । धृताम् । अच्छऽआवदामसि ॥१.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 27
विषय - विश्वधायाः पृथिवी
पदार्थ -
१. (यस्याम्) = जिसमें (वृक्षा:) = वृक्ष, (वानस्पत्या:) = और नाना प्रकार के वनस्पति, (विश्वहा) = सदा (भुवा:) = ध्रुव रूप से-निश्चल रूप से (तिष्ठिन्ति) = स्थित हैं, उस (विश्वधायसं पृथिवीम्) = समस्त पदार्थों का धारण करनेहारी (धृताम्) = प्रभु से मर्यादा में स्थापित की गई भूमि को (अच्छावदामसि) = लक्ष्य करके हम परस्पर चर्चा करते हैं। २. मिलकर पृथिवी का ज्ञान प्राप्त करते हैं। उसके स्वरूप व उससे उत्पन्न वृक्षों-वनस्पतियों की चर्चा करते हैं।
भावार्थ -
पृथिवी से उत्पन्न वृक्षों व वनस्पतियों का ज्ञान प्राप्त करके, उनका ठीक प्रयोग करते हुए हम अपना धारण करनेवाले बनते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें