अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 61
सूक्त - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - पुरोबार्हता त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भूमि सूक्त
त्वम॑स्या॒वप॑नी॒ जना॑ना॒मदि॑तिः काम॒दुघा॑ पप्रथा॒ना। यत्त॑ ऊ॒नं तत्त॒ आ पू॑रयाति प्र॒जाप॑तिः प्रथम॒जा ऋ॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒सि॒ । आ॒ऽवप॑नी । जना॑नाम् । अदि॑ति: । का॒म॒ऽदुघा॑ । प॒प्र॒था॒ना । यत् । ते॒ । ऊ॒नम् । तत् । ते॒ । आ । पू॒र॒य॒ति॒ । प्र॒जाऽप॑ति: । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ ॥१.६१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमस्यावपनी जनानामदितिः कामदुघा पप्रथाना। यत्त ऊनं तत्त आ पूरयाति प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । असि । आऽवपनी । जनानाम् । अदिति: । कामऽदुघा । पप्रथाना । यत् । ते । ऊनम् । तत् । ते । आ । पूरयति । प्रजाऽपति: । प्रथमऽजा: । ऋतस्य ॥१.६१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 61
विषय - आवपनी-अदितिः
पदार्थ -
१.हे भूमे! (त्वम्) = तू (जनानाम्) = लोगों की विविध कोनों में उत्पन्न मनुष्यों की आवपनी (असि) = बीज बोने की स्थली है। तू (पप्रथाना) = अत्यन्त विस्तारवाली होती हुई (कामदघा) = सब कामनाओं का प्रपूरण करनेवाली (अदितिः) = [गोनाम-नि० २.११] गौ ही है। यह पृथिवी सब अन्नों को उत्पन्न करनेवाली है-सब काम्य भोगों का दोहन करनेवाली कामधेनु ही है। २. (यत्) = जो (ते ऊनम्) = तुझमें कमी आती है-अनोत्पादन से जो तेरी शक्ति क्षीण होती है (तत् ते) = उस तेरी कमी को वृष्टि व वायुमण्डल की नत्रजन गैस के द्वारा, (ऋतस्य प्रथमजा:) = यज्ञों का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव करनेवाला (प्रजापति:) = प्रजारक्षक प्रभु (आपूरयाति) = आपूरित कर देता है। यज्ञों के द्वारा वृष्टि होकर पृथिवी की उत्पादन-शक्ति ठीक बनी रहती है।
भावार्थ -
यह पृथिवी अन्नों का उत्पादन करनेवाली व सब काम्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाली कामधेनु है। प्रभु यज्ञादि की व्यवस्था के द्वारा पृथिवी की शक्ति को पुन:-पुन: स्थिर किये रखते हैं।
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