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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 59
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त

    श॑न्ति॒वा सु॑र॒भिः स्यो॒ना की॒लालो॑ध्नी॒ पय॑स्वती। भूमि॒रधि॑ ब्रवीतु मे पृथि॒वी पय॑सा स॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒न्ति॒ऽवा । सु॒र॒भि: । स्यो॒ना । की॒लाल॑ऽऊध्नी । पय॑स्वती । भूमि॑: । अधि॑ । ब्र॒वी॒तु॒ । मे॒ । पृ॒थि॒वी॒ । पय॑सा । स॒ह ॥१.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शन्तिवा सुरभिः स्योना कीलालोध्नी पयस्वती। भूमिरधि ब्रवीतु मे पृथिवी पयसा सह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शन्तिऽवा । सुरभि: । स्योना । कीलालऽऊध्नी । पयस्वती । भूमि: । अधि । ब्रवीतु । मे । पृथिवी । पयसा । सह ॥१.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 59

    पदार्थ -

    १. (शन्तिवा) = शान्ति-सम्पन्न, (सुरभिः) = उत्तम गन्ध से युक्त, (स्योना) = सुख देनेवाली, कीला (लोध्नी) = अमृतमय रस को-मधु को गाय की भाँति अपने थनों में [ऊधस्] धारण करनेवाली, (पयस्वती) = क्षीर-सम्पन्न (भूमि:) = प्राणियों का निवास स्थान [भवन्ति भूतानि यस्याम्] यह भूमि हो। २. यह (पृथिवी) = प्रथन-[विस्तार]-वाली भूमि (पयसा सह) = अपने ही आप्यायन [वर्धन] के साधनों के साथ मे (अधिनवीतु) = मुझे पुकारे, उसी प्रकार जैसेकि एक माता दूध का गिलास हाथ में लिये हुए एक बच्चे को पुकार रही होती है। यह पृथिवी मुझे भी 'पयस्' प्राप्त कराए।

    भावार्थ -

    यह भूमिमाता हमारे लिए 'शान्ति, सुगन्ध, सुख व पयस्' प्राप्त कराए।

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