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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 50
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त

    ये ग॑न्ध॒र्वा अ॑प्स॒रसो॒ ये चा॒रायाः॑ किमी॒दिनः॑। पि॑शा॒चान्त्सर्वा॒ रक्षां॑सि॒ तान॒स्मद्भू॑मे यावय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ग॒न्ध॒र्वा: । अ॒प्स॒रस॑: । ये । च॒ । अ॒राया॑: । कि॒मी॒दिन॑: । पि॒शा॒चान् । सर्वा॑ । रक्षां॑सि । तान् । अ॒स्मत् । भू॒मे॒ । य॒व॒य॒ ॥१.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये गन्धर्वा अप्सरसो ये चारायाः किमीदिनः। पिशाचान्त्सर्वा रक्षांसि तानस्मद्भूमे यावय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । गन्धर्वा: । अप्सरस: । ये । च । अराया: । किमीदिन: । पिशाचान् । सर्वा । रक्षांसि । तान् । अस्मत् । भूमे । यवय ॥१.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 50

    पदार्थ -

    १. (ये) = जो लोग (गन्धर्वा:) = [गन्धं अर्वति-अर्व गती] (इतर) = फुलेल आदि गन्धों में ही खेलनेवाले हैं (अप्सरसा) = और जो स्त्रियाँ स्वर्गलोक की वेश्याएँ ही प्रतीत होती हैं वेशभूषा की चमक-दमक ही जिनका जीवन है, (ये च) = और जो (अरायाः) = एकदम अदान की वृत्तिवाले हैं [रा दाने] (किमीदिन:) = अब क्या खाएँ और अब क्या हड़प करें [किम् इदानीम्, किम् इदानीम्] यही जिनकी वृत्ति है। हे (भूमे) = भूमिमात:! (तान्) = उनको (अस्मत् यावय) = हमसे पृथक्क कर । २. (पिशाचान्) = मांस खानेवाली क्रूरवृत्तिवाले पुरुषों को तथा (सर्वा रक्षांसि) = सब राक्षसों को-अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवालों को हमसे पृथक् कर।

    भावार्थ -

    हमारे मध्य में 'भोगप्रधान जीवनवाले [गन्धर्व+अप्सरस्], कृपण, औरों का धन हड़प करनेवाले, पिशाच व राक्षस' न हों, हमारे समाज से ये दूर ही रहें, जिससे इनका कुप्रभाव समाज को दूषित करनेवाला न हो।

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