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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 56
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त

    ये ग्रामा॒ यदर॑ण्यं॒ याः स॒भा अधि॒ भूम्या॑म्। ये सं॑ग्रा॒माः समि॑तय॒स्तेषु॒ चारु॑ वदेम ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ग्रामा॑: । यत् । अर॑ण्यम् । या: । स॒भा: । अधि॑ । भूम्या॑म् । ये । स॒म्ऽग्रा॒मा: । सम्ऽइ॑तय: । तेषु॑ । चारु॑ । व॒दे॒म॒ । ते॒ ॥१.५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ग्रामा यदरण्यं याः सभा अधि भूम्याम्। ये संग्रामाः समितयस्तेषु चारु वदेम ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ग्रामा: । यत् । अरण्यम् । या: । सभा: । अधि । भूम्याम् । ये । सम्ऽग्रामा: । सम्ऽइतय: । तेषु । चारु । वदेम । ते ॥१.५६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 56

    पदार्थ -

    १. (ये ग्रामा:) = जो ग्राम, (यत् अरण्यम्) = जो जंगल, (याः सभा:) = जो सभाएँ (अधिभूम्याम्) = इस भूमि पर हैं-ये (संग्रामा:) = जो संग्राम व जो (समितयः) = शान्ति-सभाएँ [Peace conferences] इस पृथिवी पर होती है, (तेषु) = उनमें (ते चारु वदेम) = तेरे लिए सुन्दर ही वचन कहें। २. जब भी हम एकत्र हों, जहाँ भी एकत्र हों, वहाँ प्रभु से उत्पादित इस पृथिवी के महत्व का चर्चण करें। यह चर्चण हमें इस भूमिमाता का स्मरण कराएगा-हमें अनुभव होगा कि हम इस माता के ही तो पुत्र हैं-अतः परस्पर भाई हैं। ऐसा सोचने पर हम द्वेष से दूर व परस्पर प्रेमवाले होंगे।

    भावार्थ -

    हम 'ग्राम, अरण्य, सभा, संग्राम व समितियों में सर्वत्र भूमिमाता का यशोगान करते हुए परस्पर बन्धुत्व का अनुभव करें।

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