अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 35
यत्ते॑ भूमे वि॒खना॑मि क्षि॒प्रं तदपि॑ रोहतु। मा ते॒ मर्म॑ विमृग्वरि॒ मा ते॒ हृद॑यमर्पिपम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । भू॒मे॒ । वि॒ऽखना॑मि । क्षि॒प्रम् । तत् । अपि॑ । रो॒ह॒तु॒ । मा । ते॒ । मर्म॑ । वि॒ऽमृ॒ग्व॒रि॒ । मा । ते॒ । हृद॑यम् । अ॒र्पि॒प॒म् ॥१.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु। मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । भूमे । विऽखनामि । क्षिप्रम् । तत् । अपि । रोहतु । मा । ते । मर्म । विऽमृग्वरि । मा । ते । हृदयम् । अर्पिपम् ॥१.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 35
विषय - पृथिवी के 'मर्म व हृदय' का अपीड़न
पदार्थ -
१. हे (भूमे) = सब वनस्पतियों को जन्म देनेवाली पृथिवि! (यत् ते विखनामि) = जब मैं तेरा हल द्वारा अवदारण करके कुछ बोता हूँ, (तत्) = तब वह (क्षिप्रं अपिरोहतु) = शीघ्र प्रादुर्भूत हो अंकुरित होकर भूमि से ऊपर प्रकट हो। भूमि खुब उपजाऊ हो। २. हे (विमृग्वरि) = विशेषरूप से शुद्ध करनेवाली पृथिवि ! मैं (ते) = तेरे मर्म मर्मस्थानों को (मा अर्पिपम्) = पीड़ित न करे [रिफ to injure], (वि ते हृदयम्) = तेरे हदय को (मा) = विनष्ट न करूं। पृथिवी के ओषधि-पोषक अंश ही उसके 'मर्म' हैं और इसके रसप्रद अंश ही इसका हृदय है। इन्हें कभी नष्ट नहीं करना चाहिए, अन्यथा भूमि अनुपजाऊ व बंजर हो जाएगी।
भावार्थ -
हम पृथिवी के मर्मों व हदय को पीड़ित न करते हुए ही इसपर हल चलाएँ तभी इसमें बोये गये बीज सम्यक् अंकुरित होंगे।
सूचना -
भूमि पर हल चलाते समय खूब गहरा खोदना और एक बार ही अधिक फ़सल प्राप्त करने की कामना करना उचित नहीं। इससे भूमि शीघ्र बंजर हो जाती है।
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