अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
उ॒दीरा॑णा उ॒तासी॑ना॒स्तिष्ठ॑न्तः प्र॒क्राम॑न्तः। प॒द्भ्यां द॑क्षिणस॒व्याभ्यां॒ मा व्य॑थिष्महि॒ भूम्या॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ऽईरा॑णा: । उ॒त । आसी॑ना: । तिष्ठ॑न्त: । प्र॒ऽक्राम॑न्त: । प॒त्ऽभ्याम् । द॒क्षि॒ण॒ऽस॒व्याभ्या॑म् । मा । व्य॒थि॒ष्म॒हि॒ । भूम्या॑म् ॥१.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीराणा उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः। पद्भ्यां दक्षिणसव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूम्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत्ऽईराणा: । उत । आसीना: । तिष्ठन्त: । प्रऽक्रामन्त: । पत्ऽभ्याम् । दक्षिणऽसव्याभ्याम् । मा । व्यथिष्महि । भूम्याम् ॥१.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 28
विषय - पद्भ्यां दक्षिणसव्याभ्यां [प्रकामन्तः]
पदार्थ -
१. (उत ईराणा:) = ऊपर पर्वतों पर चढ़ते हुए (उत) = और (आसीना:) = घरों में बैठे हुए, (तिष्ठन्त:) = कार्यवश किसी स्थान में स्थित हुए-हुए अथवा (दक्षिणसव्याभ्याम्) = दाहिने व बायें (पद्भ्याम्) = पैरों से (प्रक्रामन्तः) = गति करते हुए हम (भूम्याम्) = इसी पृथिवी पर (मा व्यथिष्महि) = पीड़ित न हों।
भावार्थ -
हम इस पृथिवी पर विविध कार्यों में गति करते हुए किसी भी प्रकार से पीड़ित न हों। कार्य में लगे रहना ही पीड़ित न होने का साधन है।
इस भाष्य को एडिट करें