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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भा शक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त

    म॒हत्स॒धस्थं॑ मह॒ती ब॒भूवि॑थ म॒हान्वेग॑ ए॒जथु॑र्वे॒पथु॑ष्टे। म॒हांस्त्वेन्द्रो॑ रक्ष॒त्यप्र॑मादम्। सा नो॑ भूमे॒ प्र रो॑चय॒ हिर॑ण्यस्येव सं॒दृशि॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हत् । स॒धऽस्थ॑म् । म॒ह॒ती । ब॒भू॒वि॒थ॒ । म॒हान् । वेग॑: । ए॒जथु॑: । वे॒पथु॑: । ते॒ । म॒हान् । त्वा॒ । इन्द्र॑: । र॒क्ष॒ति॒ । अप्र॑ऽमादम् । सा । न॒: ।भू॒मे॒ । प्र । रो॒च॒य॒ । हिर॑ण्यस्यऽइव । स॒म्ऽदृशि॑ । मा । न॒: । द्वि॒क्ष॒त॒ । क: । चन ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महत्सधस्थं महती बभूविथ महान्वेग एजथुर्वेपथुष्टे। महांस्त्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम्। सा नो भूमे प्र रोचय हिरण्यस्येव संदृशि मा नो द्विक्षत कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महत् । सधऽस्थम् । महती । बभूविथ । महान् । वेग: । एजथु: । वेपथु: । ते । महान् । त्वा । इन्द्र: । रक्षति । अप्रऽमादम् । सा । न: ।भूमे । प्र । रोचय । हिरण्यस्यऽइव । सम्ऽदृशि । मा । न: । द्विक्षत । क: । चन ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 18

    पदार्थ -

    १. हे (भूमे) = भूमिमातः ! तू (महत् सधस्थम्) = मिलकर रहने का महान् स्थान है, (महती बभूविथ) = तू सचमुच विशाल है। (महान् ते वेग:) = तेरा वेग महान् है-तू तीव्र गतिवाली है। (एजथुः वेपथु:) = तेरा हिलना-डुलना भी महान् =  है-कम्प [भूकम्प] अति प्रबल है। (महान् इन्द्रः) = पूजनीय परमैश्वर्यशाली प्रभु (अप्रमादं त्वा रक्षति) = प्रमादरहित होकर तेरा रक्षण कर रहे हैं। २. हे भूमे! (सा) = वह तू (न: प्ररोचय:) = हमें दीप्त जीवनवाला बना। (हिरण्यस्य इव) = स्वर्ण की तरह (संदृशि) = दिखनेवाली-चमकती हुई दीप्त भूमे ! तू ऐसी कृपा कर कि (कश्चन) = कोई भी (न:) = हमसे (मा द्विक्षत) = द्वेष न करे।

    भावार्थ -

    यह विशाल प्रथिवी हम सबके लिए मिलकर रहने की भूमि है। इसका वेग व कम्प महान् है-प्रभु इसके रक्षक हैं। यह हमें द्वेषशून्य व दीत जीवनवाला बनाए।

     

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