अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 45
जनं॒ बिभ्र॑ती बहु॒धा विवा॑चसं॒ नाना॑धर्माणं पृथि॒वी य॑थौक॒सम्। स॒हस्रं॒ धारा॒ द्रवि॑णस्य मे दुहां ध्रु॒वेव॑ धे॒नुरन॑पस्फुरन्ती ॥
स्वर सहित पद पाठजन॑म् । बिभ्र॑ती । ब॒हु॒ऽधा । विऽवा॑चसम् । नाना॑ऽधर्माणम् । पृ॒थि॒वी । य॒था॒ऽओ॒क॒सम् । स॒हस्र॑म् । धारा॑: । द्रवि॑णस्य । मे॒ । दु॒हा॒म् । ध्रु॒वाऽइ॑व । धे॒नु: । अन॑पऽस्फुरन्ती ॥१.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्। सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती ॥
स्वर रहित पद पाठजनम् । बिभ्रती । बहुऽधा । विऽवाचसम् । नानाऽधर्माणम् । पृथिवी । यथाऽओकसम् । सहस्रम् । धारा: । द्रविणस्य । मे । दुहाम् । ध्रुवाऽइव । धेनु: । अनपऽस्फुरन्ती ॥१.४५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 45
विषय - विवाचसं-नानाधर्माणम्
पदार्थ -
१. (बहुधा) = बहुत प्रकार से (विवाचसम्) = विविध भाषाओं के बोलनेवाले, नानाधर्माणम अनेक प्रकार के धर्मों के माननेवाला (जनम्) = जनसमुदाय (यथा ओकसम्) = जैसे एक घर में रहता है उसी प्रकार अनेक प्रकर की बोली और कर्म करनेवालों को (बिभ्रती) = धारण करती हुई यह (पृथिवी) = भूमिमाता मे मेरे लिए (सहस्त्रम्) = हज़ारों (द्रविणस्य धारा:) = धन की धाराओं को (दुहाम्) = प्रपूरित करे-दे। २. यह पृथिवी मेरे लिए इसप्रकार धन की धाराओं का दोहन करे, (इव) = जैसेकि (अनपस्फ़ुरन्ती) = न हिलती [Shake, tremble] हुई (ध्रुव) = स्थिरता से स्थित (धेनु:) = गाय हमारे लिए दुग्ध का प्रपूरण करती है। यह पृथिवी भी कम्परहित हुई-हुई, मर्यादा में चलती हुई हमारे लिए द्रविणों का दोहन करे। यहाँ राष्ट्रों में सुव्यवस्था के कारण उपद्रव [Agitaion] ही न होते रहें [अनपस्फुरन्ती] तथा लोग नियमों का पालन करनेवाले हों [ध्रुवा]।
भावार्थ -
एक राष्ट्र में भिन्न-भिन्न बोली बोलनेवाले-भिन्न प्रकार के कर्म करनेवाले लोग, एक घर की भाँति निवास करें। राष्ट्र में हलचलें [उपद्रव] ही न होते रहें लोग व्यवस्थित जीवनवाले हों तब वह पृथिवी सबके लिए धन की धाराओं को प्राप्त करानेवाली होती है।
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