अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 63
भूमे॑ मात॒र्नि धे॑हि मा भ॒द्रया॒ सुप्र॑तिष्ठितम्। सं॑विदा॒ना दि॒वा क॑वे श्रि॒यां मा॑ धेहि॒ भूत्या॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठभूमे॑ । मा॒त॒: । नि । धे॒हि॒ । मा॒ । भ॒द्रया॑ । सुऽप्र॑तिस्थितम् । स॒म्ऽवि॒दा॒ना । दि॒वा । क॒वे॒ । श्रि॒याम् । मा॒ । धे॒हि॒ । भूत्या॑म् ॥१.६३॥
स्वर रहित मन्त्र
भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्। संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठभूमे । मात: । नि । धेहि । मा । भद्रया । सुऽप्रतिस्थितम् । सम्ऽविदाना । दिवा । कवे । श्रियाम् । मा । धेहि । भूत्याम् ॥१.६३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 63
विषय - श्री+भूति
पदार्थ -
१. हे (भूमे मातः) = मातृवत् हितकारिणि भूमे! तू (मा) = मुझे (भद्रया) = गौ के द्वारा (सप्रतिष्ठितम् धेहि) = घर में सम्यक स्थापित कर । गौ के होने पर घर में 'स्वास्थ्य, शान्ति व दीसि' बनी रहती है। गोदुग्ध हमें शरीर से स्वस्थ, मन से शान्त तथा मस्तिष्क से ज्ञानदीप्त बनाता है। २. हे (कवे) = प्रशंसनीय [Praise-worthy] (मातः) = ! दिवा (संविदाना) = प्रकाशमय इस द्युलोक से [द्यौष्पिता, पृथिवी माता] संज्ञान-[ऐकमत्य]-बाली होती हुई तू (मा) = मुझे (श्रियाम्) = श्री में तथा (भूत्याम्) = भूति में-ऐश्वर्य में धेहि स्थापित कर। हम श्रीवाले बनें-धनों को प्राप्त करें और भूतिसम्पन्न हों ऐश्वर्यवाले हों, उन धनों के स्वामी बनकर आनन्द को प्राप्त करें।
भावार्थ -
हे भूमिमातः ! मैं तेरे पृष्ठ पर गौ के साथ में सम्यक् प्रतिष्ठित होऊँ। यह पृथिवी माता, पिता धुलोक के साथ, मुझे श्री और भूति में स्थापित करे। में आवश्यक धनों को प्राप्त करके जीवन को आनन्दमय बना पाऊँ।
इस भूमिमाता की गोद में रहता हुआ जो भी व्यक्ति अपना ठीक प्रकार से परिपाक करता है, वह 'भृगु [भ्रस्ज पाके] बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है। यह क्रव्याद् अग्नि को [न केवलं क्रव्यात् शवदाहे शवमासम् अनति अपितु घोरत्वात् यक्ष्मादीन बहन रोगान् मृत्यु च बहुविधम् आवहति । तथैव नाना प्रकारको भवति-सा०] रोग, आपत्ति व मृत्यु की कारणभूत अग्नि को सम्बोधन करते हुए कहता है कि -
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