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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 51
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदानुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त

    यां द्वि॒पादः॑ प॒क्षिणः॑ सं॒पत॑न्ति हं॒साः सु॑प॒र्णाः श॑कु॒ना वयां॑सि। यस्यां॒ वातो॑ मात॒रिश्वेय॑ते॒ रजां॑सि कृ॒ण्वंश्च्या॒वयं॑श्च वृ॒क्षान्। वात॑स्य प्र॒वामु॑प॒वामनु॑ वात्य॒र्चिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । द्वि॒ऽपाद॑: । प॒क्षिण॑: । स॒म्ऽपत॑न्ति । हं॒सा: । सु॒ऽप॒र्णा: । श॒कु॒ना: । वयां॑सि । यस्या॑म् । वात॑: । मा॒त॒रिश्वा॑ । ईयते॑ । रजां॑सि । कृ॒ण्वन् । च्य॒वय॑न् । च॒ । वृ॒क्षान् । वात॑स्य । प्र॒ऽवाम् । उ॒प॒ऽवान् । अनु॑ । वा॒ति॒ । अ॒र्चि: ॥१.५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां द्विपादः पक्षिणः संपतन्ति हंसाः सुपर्णाः शकुना वयांसि। यस्यां वातो मातरिश्वेयते रजांसि कृण्वंश्च्यावयंश्च वृक्षान्। वातस्य प्रवामुपवामनु वात्यर्चिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । द्विऽपाद: । पक्षिण: । सम्ऽपतन्ति । हंसा: । सुऽपर्णा: । शकुना: । वयांसि । यस्याम् । वात: । मातरिश्वा । ईयते । रजांसि । कृण्वन् । च्यवयन् । च । वृक्षान् । वातस्य । प्रऽवाम् । उपऽवान् । अनु । वाति । अर्चि: ॥१.५१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 51

    पदार्थ -

    १. (याम्) = जिस पृथिवी पर (द्विपादः) = ये दो पाँववाले अथवा पृथिवी व अन्तरिक्ष पर दोनों स्थानों में गतिवाले [द्वयोः पद्यन्ते] (पक्षिण:) = पक्षी (संपतन्ति) = सम्यक् गतिवाले होते हैं, (हंसा:) = हंस, (सुपर्णा:) = गरुड़, (शकुना:) = गिद्ध या चील [Vulture or kite] तथा (वासि) = कौवे [Crow] जिसपर उड़ा करते हैं, वह यह हमारी भूमिमाता है। २. (यस्याम्) = जिसमें (मातरिश्वा) = अन्तरिक्ष में निरन्तर गतिवाला यह (वात:) = वायु (ईयते) = चलता है। (रजांसि कृण्वन) = सारे अन्तरिक्ष में धूल ही-धूल फैलाता हुआ, (च) = और (वृक्षान् च्यावयन्) = वृक्षों को अपने स्थान से च्युत करता हुआ यह वायु आँधी के रूप में चलता है। इस (वातस्य प्रवाम् उपवाम् अनु) = वायु के प्रबलवेग [प्रवा] व निरन्तर बहने [उपवा] के साथ (अर्चिः) = गर्मी की ज्वाला [ल] भी वाति चलती है। यह प्रचण्ड लू भी दुर्गन्ध की समाप्ति व क्रिमियों के विनाश के लिए आवश्यक ही होती है।

    भावार्थ -

    इस पृथिवी पर नाना प्रकार के पक्षियों का सम्पतन होता है। यहाँ अन्तरिक्ष में वाय निरन्तर बहती है-कभी वह आँधी के रूप में होती है और वृक्षों को उखाड रही होती है और कभी-कभी यह प्रचण्ड लू के रूप में चलती हुई सब रोगकृमियों व दुर्गन्ध का विनाश करती है।

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