अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
अ॒ग्निर्दि॒व आ त॑पत्य॒ग्नेर्दे॒वस्यो॒र्वन्तरि॑क्षम्। अ॒ग्निं मर्ता॑स इन्धते हव्य॒वाहं॑ घृत॒प्रिय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । दि॒व: । आ । त॒प॒ति॒ । अ॒ग्ने: । दे॒वस्य॑ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ग्निम् । मर्ता॑स: । इ॒न्ध॒ते॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । ह॒व्य॒ ऽवाह॑म् । घृ॒त॒ऽप्रिय॑म् ॥१.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वन्तरिक्षम्। अग्निं मर्तास इन्धते हव्यवाहं घृतप्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । दिव: । आ । तपति । अग्ने: । देवस्य । उरु । अन्तरिक्षम् । अग्निम् । मर्तास: । इन्धते । हव्यऽवाहम् । हव्य ऽवाहम् । घृतऽप्रियम् ॥१.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
विषय - त्रिलोकी में 'अग्नि'
पदार्थ -
१. (दिवः) = लोक से यह (अग्निः आतपति) = सूर्यरूप अग्नि समन्तात् दोस हो रहा है। (देवस्य अग्नेः) = प्रकाशमय विद्युद्प अग्नि का ही यह (उरु अन्तरिक्षम्) = विशाल अन्तरिक्ष है। (मास:) = इस पृथिवी पर स्थित मनुष्य उस (अग्निं इन्धते) = अग्नि को दीस करते हैं, जोकि (हव्यवाहम) = हव्य पदार्थों का वहन करता है और (घृतप्रियम्) = घृत के द्वारा प्रीणित होनेवाला है, अर्थात् मनुष्य यहाँ यज्ञाग्नि को दीप्त करते हैं।
भावार्थ -
यह अग्नि द्युलोक में सूर्यरूप से है, अन्तरिक्ष में विधुदूप से तथा इस पृथिवी पर यज्ञाग्नि के रूप में मनुष्यों से दीप्त किया जाता है।
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