अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 36
सूक्त - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - विपरीतपादलक्ष्मा पङ्क्तिः
सूक्तम् - भूमि सूक्त
ग्री॒ष्मस्ते॑ भूमे व॒र्षाणि॑ श॒रद्धे॑म॒न्तः शिशि॑रो वस॒न्तः। ऋ॒तव॑स्ते॒ विहि॑ता हाय॒नीर॑होरा॒त्रे पृ॑थिवि नो दुहाताम् ॥
स्वर सहित पद पाठग्री॒ष्म: । ते॒ । भू॒मे॒ । व॒र्षाणि॑ । श॒रत् । हे॒म॒न्त: । शिशि॑र: । व॒स॒न्त: । ऋ॒तव॑: । ते॒ । विऽहि॑ता: । हा॒य॒नी: । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । पृ॒थि॒वि॒ । न॒: । दु॒हा॒ता॒म् ॥१.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रीष्मस्ते भूमे वर्षाणि शरद्धेमन्तः शिशिरो वसन्तः। ऋतवस्ते विहिता हायनीरहोरात्रे पृथिवि नो दुहाताम् ॥
स्वर रहित पद पाठग्रीष्म: । ते । भूमे । वर्षाणि । शरत् । हेमन्त: । शिशिर: । वसन्त: । ऋतव: । ते । विऽहिता: । हायनी: । अहोरात्रे इति । पृथिवि । न: । दुहाताम् ॥१.३६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 36
विषय - ऋतुचक्र
पदार्थ -
१. हे (भूमे) = भूमिमात: ! ('ग्रीष्मः, वर्षाणि, शरत, शिशिरः, वसन्त:') = ये ग्रीष्म आदि ऋतुएँ (ते) = तेरी हैं। ये (ते) = तेरी (ऋतवः) = ऋतुएँ (हायनी:) = प्रतिवर्ष आनेवाली (विहिता:) = की गई हैं। प्रतिवर्ष यह ऋतुचक्र तुझपर चलता है और वर्ष की पूर्ति होती है। २. हे (पृथिवि) = अतिशय विस्तारवाली भूमे! अहोरात्रे दिन व रात (न:) = हमारे लिए (दुहाताम्) = इन ऋतुओं का दोहन करनेवाले हों। इन ऋतुओं में हमें सदा उत्कृष्ट (ओषधि) = वनस्पति प्राप्त होती रहें।
भावार्थ -
प्रभु ने इस पृथिवी पर प्रतिवर्ष चलनेवाले एक ऋतुचक्र का स्थापन किया है। दिन और रात हमारे लिए इस ऋतुचक्र से उत्तम ओषधियों-वनस्पतियों का दोहन करनेवाले हों।
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