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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त

    ता नः॑ प्र॒जाः सं दु॑ह्रतां सम॒ग्रा वा॒चो मधु॑ पृथिवि धेहि॒ मह्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता: । न॒: । प्र॒ऽजा: । सम् । दु॒ह्र॒ता॒म् । स॒म्ऽअ॒ग्रा: । वा॒च: । मधु॑ । पृ॒थि॒वि॒ । धे॒हि॒ । मह्य॑म् ॥१.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता नः प्रजाः सं दुह्रतां समग्रा वाचो मधु पृथिवि धेहि मह्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता: । न: । प्रऽजा: । सम् । दुह्रताम् । सम्ऽअग्रा: । वाच: । मधु । पृथिवि । धेहि । मह्यम् ॥१.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. हे (पृथिवि) = भूमिमातः ! (ता:) = वे (न:) = हमारी (प्रजा:) = प्रजाएँ-सन्तान (समग्रा: वाचः) = सम्पूर्ण ज्ञानवाणियों का (संदुह्रताम्) = सम्यक् दोहन करें, अर्थात् वे खूब ज्ञान की रुचिवाली बनें और हे पृथिवि! तु (मह्यम्) = मेरे लिए (मधु धेहि) = माधुर्य को धारण कर । मैं सदा मधुरवाणी ही बोलनेवाला बनें।

    भावार्थ -

    प्रभुकृपा से हमारी सन्तानें ज्ञान प्रधान हों और हमारे जीवन में मधुरता हो। हम कभी कटु शब्द न बोलें।

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