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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती सूक्तम् - भूमि सूक्त

    यस्ते॑ ग॒न्धः पुष्क॑रमावि॒वेश॒ यं सं॑ज॒भ्रुः सू॒र्याया॑ विवा॒हे। अम॑र्त्याः पृथिवि ग॒न्धमग्रे॒ तेन॒ मा सु॑र॒भिं कृ॑णु॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । ग॒न्ध: । पुष्क॑रम् । आ॒ऽवि॒वेश॑ । यम् । स॒म्ऽज॒भ्रु: । सू॒र्याया॑: । वि॒ऽवा॒हे । अम॑र्त्या: । पृ॒थि॒वि॒ । ग॒न्धम् । अग्रे॑ । तेन॑ । मा॒ । सु॒र॒भिम् । कृ॒णु॒ । मा । न॒: । द्वि॒क्ष॒त॒ । क: । च॒न ॥१.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते गन्धः पुष्करमाविवेश यं संजभ्रुः सूर्याया विवाहे। अमर्त्याः पृथिवि गन्धमग्रे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । गन्ध: । पुष्करम् । आऽविवेश । यम् । सम्ऽजभ्रु: । सूर्याया: । विऽवाहे । अमर्त्या: । पृथिवि । गन्धम् । अग्रे । तेन । मा । सुरभिम् । कृणु । मा । न: । द्विक्षत । क: । चन ॥१.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 24

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो, हे पृथिवि! (ते गन्धः) = तेरा गन्ध (पुष्करम् आविवेश) = कमल में प्रविष्ट हुआ - है तथा (यं गन्धम्) = जिस गन्ध को (अमा:) = ये अमरधर्मा वायु आदि देव (सूर्यायाः) = उषाकाल के विवाहे-विशिष्टरूप से प्राप्त होने पर (अग्रे संजभः) = आगे और आगे प्राप्त कराते हैं। सूर्योदय के अवसर पर कमल खिलते हैं और उनपर से बहनेवाला वायु उनके पराग-गन्ध को अपने साथ आगे ले-जाता है। हे (पृथिवि) = भूमिमातः! मा मुझे भी (तेन सुरभिं कृणु) = उस गन्ध से सुगन्धित जीवनवाला बना। २. जिस प्रकार वायुप्रवाह के साथ कमलगन्ध सर्वत्र प्रसृत होता है, उसी प्रकार मेरा जीवन सर्वत: यशोगन्ध से पूर्ण हो। उत्तमकों को करता हुआ मैं यशस्वी बन्। (कश्चन) = कोई भी (नः मा द्विक्षत) = हमारे साथ द्वेष न करे ।

    भावार्थ -

    कमल-गन्ध की तरह हमारा जीवन उत्तम कर्मों की यशोगन्धवाला हो। हम सब के प्रिय बनें-किसी से हमारा द्वेष न हो। हम संसार-सरोवर में कमल की तरह अलिप्तभाव से रहें।

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