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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 48
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - पुरोऽनुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त

    म॒ल्वं बिभ्र॑ती गुरु॒भृद्भ॑द्रपा॒पस्य॑ नि॒धनं॑ तिति॒क्षुः। व॑रा॒हेण॑ पृथि॒वी सं॑विदा॒ना सू॑क॒राय॒ वि जि॑हीते मृ॒गाय॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒ल्वम् । बिभ्र॑ती । गु॒रु॒ऽभृत् । भ॒द्र॒ऽपा॒पस्य॑ । नि॒ऽधन॑म् । ति॒ति॒क्षु: । व॒रा॒हेण॑ । पृ॒थि॒वी । स॒म्ऽवि॒दा॒ना । सू॒क॒राय॑ । वि । जि॒ही॒ते॒ । मृ॒गाय॑ ॥१.४८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मल्वं बिभ्रती गुरुभृद्भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः। वराहेण पृथिवी संविदाना सूकराय वि जिहीते मृगाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मल्वम् । बिभ्रती । गुरुऽभृत् । भद्रऽपापस्य । निऽधनम् । तितिक्षु: । वराहेण । पृथिवी । सम्ऽविदाना । सूकराय । वि । जिहीते । मृगाय ॥१.४८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 48

    पदार्थ -

    १. (मल्वम्)  [मल् to hold, possess] धन को पकड़कर रखनेवाले कृपण को भी बिभ्रती-धारण करती हुई यह पृथिवी गुरुभृत्-[गुरु great] विशाल हृदयवालों को धारण करती है। (भद्रपापस्य) = भले-बुरे सभी के (निधनम्) = निवास [residence] को तितिक्षः-यह सहनेवाली है। यह 'कृपण, उदार, भद्र व पाप' सभी का धारण करती है-अपने पर सभी के निवास को सहती है। २. यह पृथिवी-भूमिमाता वराहेण-[मेघेन] मेघ के साथ संविदाना ऐकमत्य को प्राप्त हुई-हुई, अर्थात् अपने पति पर्जन्य से मिलकर-मेघ द्वारा वृष्टि होने पर मृगाय-उत्तम बीजों का अन्वेषण करनेवाले सूकराय-[सुवं प्रसवं करोति] बीजवपन करनेवाले कृषक के लिए विजिहीते-विशेषरूप से प्रास होती है। कृषक इसमें बीजवपन करते हैं और यह विविध अन्नों को जन्म देती है।

    भावार्थ -

    इस पृथिवी पर 'कृपण, उदार व भले-बुरे' सभी रहते हैं। यह पृथिवी मेष से मिलकर कृषक के लिए विविध अन्नों को प्राप्त कराती है। इस अन्न द्वारा वह सभी का पोषण करती है।

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