अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - भूमि सूक्त
वि॑श्वंभ॒रा व॑सु॒धानी॑ प्रति॒ष्ठा हिर॑ण्यवक्षा॒ जग॑तो नि॒वेश॑नी। वै॑श्वान॒रं बिभ्र॑ती॒ भूमि॑र॒ग्निमिन्द्रऋ॑षभा॒ द्रवि॑णे नो दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒श्व॒म्ऽभ॒रा । व॒सु॒ऽधानी॑ । प्र॒ति॒ऽस्था । हिर॑ण्यऽवक्षा: । जग॑त: । नि॒ऽवेश॑नी । वै॒श्वा॒न॒रम् । बिभ्र॑ती । भूमि॑: । अ॒ग्निम् । इन्द्र॑ऽऋषभा । द्रवि॑णे । न॒: । द॒धा॒तु॒ ॥१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी। वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निमिन्द्रऋषभा द्रविणे नो दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वम्ऽभरा । वसुऽधानी । प्रतिऽस्था । हिरण्यऽवक्षा: । जगत: । निऽवेशनी । वैश्वानरम् । बिभ्रती । भूमि: । अग्निम् । इन्द्रऽऋषभा । द्रविणे । न: । दधातु ॥१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
विषय - 'वसुधानी हिरण्यवक्षा:' पृथिवी
पदार्थ -
१. यह (भूमि:) = पृथिवी (विश्वंभरा) = सबका भरण करनेवाली है, (वसुधानी) = निवास के लिए आवश्यक सब द्रविणों का धारण करनेवाली है, (प्रतिष्ठा) = सबका आधार है, (हिरण्यवक्षा:) = सारे जगत् को बसानेवाली है। २. (वैश्वानरं अग्रिं बिभ्रती) = उत्तम अन्न व दुग्ध की समिधाओं व आहुतियों द्वारा हमारी जाठराग्नि का भरण करती हुई यह (इन्द्रऋषभा) = सूर्यरूप ऋषभवाली पृथिवी (न:) = हमें (द्रविणे दधातु) = धनों में धारण करे। पृथिवी 'गौ' है, सूर्य उसका 'ऋषभ' है। जैसे ऋषभ गौ में शक्ति का सेचन करता है, इसीप्रकार सूर्य इस पृथिवी में वृष्टिजल का सेचन करता है। तब यह पृथिवी अनादि द्रविणों को जन्म देनेवाली होती है।
भावार्थ -
यह पृथिवी सबका भरण करनेवाली है, सब वसुओं का धारण करनेवाली, सबका आधार, सुवर्ण की खानोंवाली यह पृथिवी सब जगत् को बसानेवाली है। यह अन्नादि द्वारा हमारी जाठराग्नि को ईंधन प्राप्त कराती हुई, हमें सब द्रविणों को प्राप्त कराती है।
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