अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 42
यस्या॒मन्नं॑ व्रीहिय॒वौ यस्या॑ इ॒माः पञ्च॑ कृ॒ष्टयः॑। भूम्यै॑ प॒र्जन्य॑पत्न्यै॒ नमो॑ऽस्तु व॒र्षमे॑दसे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑म् । अन्न॑म् । व्री॒हि॒ऽय॒वौ । यस्या॑: । इ॒मा: । पञ्च॑ । कृ॒ष्टय॑: । भूम्यै॑ । प॒र्जन्य॑ऽपत्न्यै । नम॑: । अ॒स्तु॒ । व॒र्षऽमे॑दसे ॥१.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यामन्नं व्रीहियवौ यस्या इमाः पञ्च कृष्टयः। भूम्यै पर्जन्यपत्न्यै नमोऽस्तु वर्षमेदसे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याम् । अन्नम् । व्रीहिऽयवौ । यस्या: । इमा: । पञ्च । कृष्टय: । भूम्यै । पर्जन्यऽपत्न्यै । नम: । अस्तु । वर्षऽमेदसे ॥१.४२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 42
विषय - व्रीहियवौ
पदार्थ -
१. (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (व्रीहियवौ अत्रम्) = चावल व जो मनुष्य के प्रशस्त भोजन हैं। (यस्या:) = जिस पृथिवीमाता के (इमा:) = ये (पञ्च) = पाँच (कृष्टयः) = मनुष्य 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निषाद' पुत्ररूप हैं। २. उस (पर्जन्यपन्यै) = मेघ की पत्नीरूप, (वर्षमेदसे) = वृष्टिजलरूप स्नेह वाली-वृष्टिजल से स्निग्ध (भूम्यै) = भूमि के लिए (नमः अस्तु) = हमारा नमस्कार हो। इस भूमि का हम उचित आदर करें। इसमें अन्नोत्पादन के लिए यत्नशील हों। मेष इस पृथिवी का पति है, वह पृथिवी पर जल का सेचन करता है। इस वृष्टि-जल से स्निग्ध पृथिवी में अन्न का उत्पादन होता है।
भावार्थ -
हम वीहि व यव को ही अपना मुख्य भोजन बनाएँ। सभी को अपना भाई समझें। वृष्टि-जल से स्निग्ध होनेवाली भूमि में अन्नोत्पादन के लिए यत्नशील हों।
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