अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 53
सूक्त - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - पुरोबार्हतानुष्टुप्
सूक्तम् - भूमि सूक्त
द्यौश्च॑ म इ॒दं पृ॑थि॒वी चा॒न्तरि॑क्षं च मे॒ व्यचः॑। अ॒ग्निः सूर्य॒ आपो॑ मे॒धां विश्वे॑ दे॒वाश्च॒ सं द॑दुः ॥
स्वर सहित पद पाठद्यौ: । च॒ । मे॒ । इ॒दम् । पृ॒थि॒वी । च॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् । च॒ । मे॒ । व्यच॑: । अ॒ग्नि: । सूर्य॑: । आप॑: । मे॒धाम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । च॒ । सम् । द॒दु॒: ॥१.५३॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यौश्च म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं च मे व्यचः। अग्निः सूर्य आपो मेधां विश्वे देवाश्च सं ददुः ॥
स्वर रहित पद पाठद्यौ: । च । मे । इदम् । पृथिवी । च । अन्तरिक्षम् । च । मे । व्यच: । अग्नि: । सूर्य: । आप: । मेधाम् । विश्वे । देवा: । च । सम् । ददु: ॥१.५३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 53
विषय - व्यचः-मेधा
पदार्थ -
१. (द्यौः च) = द्युलोक, (पृथिवी च) = पृथिवीलोक, (अन्तरिक्षं च) = और अन्तरिक्षलोक (मे) = मेरे लिए (इदं व्यच:) = इस विशालता-विशाल हृदयता [Expanse, Vastness] को दें। द्युलोकस्थ सूर्य सभी के लिए प्रकाश देता है, पृथिवी से उत्पन्न फूल-फल सभी भद्र-पापियों का पोषण करते हैं, अन्तरिक्ष में बहनेवाला वायु सभी को जीवन देता है। मेरे हृदय में भी सभी के लिए स्थान हो। २. (अग्निः) = पृथिवी का मुख्यदेव 'अग्नि', (सूर्यः) = द्युलोक का मुख्य देव 'सूर्य', (आप:) = अन्तरिक्ष में मेघस्थ जल, (विश्वेदेवा: च) = और सब देव मिलकर मुझे (मेधा संददुः) = बुद्धि देनेवाले हों। सभी देवों की अनुकूलता में मैं स्वस्थ मस्तिष्क बनें। सब देवों की अनुकूलता होने पर ही स्वास्थ्य प्राप्त होता और बुद्धि भी स्वस्थ बनी रहती है।
भावार्थ -
त्रिलोकी के विस्तार का चिन्तन मुझे भी विशाल बनाये। सूर्य आदि सब देव मुझे स्वस्थ बनाते हुए स्वस्थ मस्तिष्कवाला करें।
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