अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 54
अ॒हम॑स्मि॒ सह॑मान॒ उत्त॑रो॒ नाम॒ भूम्या॑म्। अ॑भी॒षाड॑स्मि विश्वा॒षाडाशा॑माशां विषास॒हिः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । अ॒स्मि॒ । सह॑मान: । उत्त॑र: । नाम॑ । भूम्या॑म् । अ॒भी॒षाट् । अ॒स्मि॒ । वि॒श्वा॒षाट् । आशा॑म्ऽआशाम् । वि॒ऽस॒स॒हि: ॥१.५४॥
स्वर रहित मन्त्र
अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम्। अभीषाडस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहिः ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । अस्मि । सहमान: । उत्तर: । नाम । भूम्याम् । अभीषाट् । अस्मि । विश्वाषाट् । आशाम्ऽआशाम् । विऽससहि: ॥१.५४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 54
विषय - अभीषाद-विश्वषाद
पदार्थ -
१.(अहम्) = मैं (सहमान:) = 'सर्दी, गर्मी' आदि द्वन्द्वों को सहनेवाला और (भूम्याम्) = इस पृथिवी पर (उत्तरः नाम अस्मि) = उत्कृष्टतर यश-[नाम]-वाला हूँ। (अभीषाट् अस्मि) = मैं चारों ओर से आक्रमण करनेवाले काम-क्रोध आदि शत्रुओं का मषर्ण करनेवाला हूँ। (विश्वाषा) = [विशन्ति] न चाहते हुए भी मेरे अन्दर घुस आनेवाले इन शत्रुओं का मैं पराभव करनेवाला हूँ। आशां आशां (विषासहिः) = मैं प्रत्येक दिशा में शत्रुओं को पराजित करनेवाला हूँ। अथवा [आशा-इच्छा] सब इच्छाओं को कुचल देनेवाला हूँ।
भावार्थ -
इस भूपृष्ठ पर मैं हुन्ढों का सहन करनेवाला बनूँ और इसप्रकार उत्कृष्ट जीवनवाला होऊँ। चारों ओर से आक्रमण करते हुए व मेरे न चाहते हुए भी मुझमें प्रवेश करते हुए काम क्रोध आदि को मैं जीतूं। सब भौतिक इच्छाओं से ऊपर उहूँ।
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