अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
वि॒मृग्व॑रीं पृथि॒वीमा व॑दामि क्ष॒मां भूमिं॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒नाम्। ऊर्जं॑ पु॒ष्टं बिभ्र॑तीमन्नभा॒गं घृ॒तं त्वा॑भि॒ नि षी॑देम भूमे ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽमृग्व॑रीम् । पृ॒थि॒वीम् । आ । व॒दा॒मि॒ । क्ष॒माम् । भूमि॑म् । ब्रह्म॑णा । व॒वृ॒धा॒नाम् । ऊर्ज॑म् । पु॒ष्टम् । बिभ्र॑तीम् । अ॒न्न॒ऽभा॒गम् । घृ॒तम् । त्वा॒ । अ॒भि । नि । सी॒दे॒म॒ । भू॒मे॒ ॥१.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
विमृग्वरीं पृथिवीमा वदामि क्षमां भूमिं ब्रह्मणा वावृधानाम्। ऊर्जं पुष्टं बिभ्रतीमन्नभागं घृतं त्वाभि नि षीदेम भूमे ॥
स्वर रहित पद पाठविऽमृग्वरीम् । पृथिवीम् । आ । वदामि । क्षमाम् । भूमिम् । ब्रह्मणा । ववृधानाम् । ऊर्जम् । पुष्टम् । बिभ्रतीम् । अन्नऽभागम् । घृतम् । त्वा । अभि । नि । सीदेम । भूमे ॥१.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 29
विषय - विमृग्वरी' पृथिवी
पदार्थ -
१. (विमग्वरीम्) = विशिष्ट रूप से शोधन करनेवाली [मिट्टी से शोधन होता ही है-यह शरीर के विषों को भी चूस लेती है] (पृथिवीं आवदामि) = पृथिवी का मैं समन्तात् गुणगान करता हूँ। यह (क्षमाम्) = सब आघातों को सहनेवाली, (भूमिम्) = सब प्राणियों का निवास स्थान [भवन्ति भूतानि यस्याम्], (ब्रह्मणा वावृधानाम्) = [ब्रह्म-अनं] अन्नों के द्वारा सबका वर्धन करनेवाली है। २. (ऊर्जम्) = 'बल व प्राणशक्ति'-प्रद, (पुष्टम्) = पुष्टिकारक (अन्नभागं घृतम्) = भजनीय अन्न को तथा घृत को (बिभ्रतीम्) = धारण करती हुई, हे (भूमे) = भूमिमातः ! (त्वा अभिनिषीदेम) = तुझपर हम समन्तात् निषण्ण हों-तेरी गोद में बैठे।
भावार्थ -
यह पृथिवी शोधन का कारण बनती है। सहनेवाली, प्राणियों का निवासस्थान, तथा अन्न द्वारा हमारा खूब ही वर्धन करनेवाली है। बलप्रद व पुष्टिकारक भजनीय अन्न व घृत को धारण करती हुई इस पृथिवी पर हम समन्तात् निषण्ण हों।
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