अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 37
याप॑ स॒र्पं वि॒जमा॑ना वि॒मृग्व॑री॒ यस्या॒मास॑न्न॒ग्नयो॒ ये अ॒प्स्वन्तः। परा॒ दस्यू॒न्दद॑ती देवपी॒यूनिन्द्रं॑ वृणा॒ना पृ॑थि॒वी न वृ॒त्रम्। श॒क्राय॑ दध्रे वृष॒भाय॒ वृष्णे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठया । अप॑ । स॒र्पम् । वि॒जमा॑ना । वि॒ऽमृग्व॑री । यस्या॑म् । आस॑न् । अ॒ग्नय॑: । ये । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । परा॑ । दस्यू॑न् । दद॑ती । दे॒व॒ऽपी॒यून् । इन्द्र॑म् । वृ॒णा॒ना । पृ॒थि॒वी । न । वृ॒त्रम् । श॒क्राय॑ । द॒ध्रे॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । वृष्णे॑ ॥१.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
याप सर्पं विजमाना विमृग्वरी यस्यामासन्नग्नयो ये अप्स्वन्तः। परा दस्यून्ददती देवपीयूनिन्द्रं वृणाना पृथिवी न वृत्रम्। शक्राय दध्रे वृषभाय वृष्णे ॥
स्वर रहित पद पाठया । अप । सर्पम् । विजमाना । विऽमृग्वरी । यस्याम् । आसन् । अग्नय: । ये । अप्ऽसु । अन्त: । परा । दस्यून् । ददती । देवऽपीयून् । इन्द्रम् । वृणाना । पृथिवी । न । वृत्रम् । शक्राय । दध्रे । वृषभाय । वृष्णे ॥१.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 37
विषय - 'शक्र, वृषा, वृषभ' राजा
पदार्थ -
१. या जो पृथिवी (सर्प अपविजमाना) = सर्प के समान कुटिल पुरुष से भय खाती हुई कुटिल पुरुषों से दूर ही रहना चाहती है, (विमृग्वरी) = विशिष्ट रूप से शुद्ध-पवित्र करनेवाली, (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (अग्नयः) = वे प्रशस्त 'माता-पिता व आचार्य'-रूप अग्नियाँ आसन्-हैं, (ये) = जोकि (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं के अन्दर निवास करती हैं ('पिता वै गार्हपत्योनिर्माताग्निर्दक्षिण: स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी')। यह (पृथिवी) = भूमि (देवपीयून्) = देववृत्ति के पुरुषों का हिंसन करनेवाले (दस्यून) = दस्युओं को (पराददती) = दूर करने के हेतु से (इन्द्रं वृणाना) = शत्रुओं के नाशक, जितेन्द्रिय राजा का वरण करती है, (न वृत्रम्) = ज्ञान पर पर्दा डाल देनेवाले विलासी राजा का वरण नहीं करती। २. यह पृथिवी (शक्राय) = शक्तिशाली (वृष्णे) = प्रजाओं पर सुखों का सेचन करनेवाले, (वृषभाय) = श्रेष्ठ राजा के लिए ही (दध्रे) = धारण की जाती है। राजा वही ठीक है जोकि 'शक' है, 'वृषा' है और अतएव 'वृषभ' है। ऐसा ही राजा राष्ट्र-शकट का वहन करने में समर्थ होता है।
भावार्थ -
यह पृथिवी कुटिलवृत्ति के, देवों के हिंसक दस्युओं से भय खाती है। यह प्रजाओं में प्रशस्त 'माता, पिता व आचार्य'-रूप अग्नियों से हमारे जीवन को शुद्ध बनाती है। यह 'इन्द्र' का वरण करती है, न कि वृत्र का। इसका शासक वही ठीक है जो 'शक्तिशाली, प्रजाओं पर सुखों का सेचन करनेवाला वश्रेष्ठ' है।
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