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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्रयवसाना षट्पदा विराडष्टिः सूक्तम् - भूमि सूक्त

    यार्ण॒वेऽधि॑ सलि॒लमग्र॒ आसी॒द्यां मा॒याभि॑र॒न्वच॑रन्मनी॒षिणः॑। यस्या॒ हृद॑यं पर॒मे व्योमन्त्स॒त्येनावृ॑तम॒मृतं॑ पृथि॒व्याः। सा नो॒ भूमि॒स्त्विषिं॒ बलं॑ रा॒ष्ट्रे द॑धातूत्त॒मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । अ॒र्ण॒वे । अधि॑ । स॒लि॒लम् । अग्ने॑ । आसी॑त् । याम् । मा॒याभि॑: । अ॒नु॒ऽअच॑रन् । म॒नी॒षिण॑: । यस्या॑: । हृद॑यम् । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । स॒त्येन॑ । आऽवृ॑तम् । अ॒मृत॑म् । पृ॒थि॒व्या: । सा । न॒: । भूमि॑: । त्विषि॑म् । बल॑म् । रा॒ष्ट्रे । द॒धा॒तु॒ । उ॒त्ऽत॒मे ॥१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीद्यां मायाभिरन्वचरन्मनीषिणः। यस्या हृदयं परमे व्योमन्त्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः। सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्ट्रे दधातूत्तमे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । अर्णवे । अधि । सलिलम् । अग्ने । आसीत् । याम् । मायाभि: । अनुऽअचरन् । मनीषिण: । यस्या: । हृदयम् । परमे । विऽओमन् । सत्येन । आऽवृतम् । अमृतम् । पृथिव्या: । सा । न: । भूमि: । त्विषिम् । बलम् । राष्ट्रे । दधातु । उत्ऽतमे ॥१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. (या) = जो (अग्रे) = पहले (अर्णवे अधि) = महान् समुद्र में (सलिलम् आसीत्) = जलरूप ही थी, अर्थात् जल में ही लीन हुई-हुई थी [अद्भ्यः पृथिवी] जलों से ही तो इसकी उत्पत्ति होती है, (याम्) = जिस पृथिवी को (मनीषिणः) = ज्ञानी लोग (मायाभिः) = प्रज्ञानों के साथ (अनु अचरन्) = अनुकूलता से सेवित करते हैं। (सा भूमिः) = वह भूमि (न:) = हमारे लिए (उत्तमे राष्ट्रे) = [मनीषियों से सेवित] उत्तम राष्ट्र में (त्विषि बलं दधतु) ृ ज्ञानदीसि व बल को धारण करे। २. वह पृथिवी हमारे लिए 'विधि और बल' को धारण करे, (यस्याः पृथिव्या:) = जिस पृथिवी का-पृथिवी पर विचरण करनेवाले मनीषियों का-(हृदयम्) = हृदय (परमे व्योमन्) = परम व्योम, अर्थात् प्रभु में है [ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्] और अतएव (सत्येन आवृतम्) = सत्य से आवृत है-प्रभुस्मरण से हृदय में असत्य के प्रवेश का सम्भव नहीं रहता, अतएव (अमृतम्) = अमृत है-विषय-वासनाओं के पीछे मरनेवाला नहीं है।

    भावार्थ -

    यह पृथिवी पहले जलरूप थी। इस पृथिवी पर मनीषी लोग ज्ञानपूर्वक विचरण करते हैं। पृथिवी पर विचरनेवाले इन मनीषियों का हृदय प्रभु में स्थित होता है-सत्य से आवृत होता है और विषय-वासनाओं के पीछे मरनेवाला नहीं होता।

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