अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 30
शु॒द्धा न॒ आप॑स्त॒न्वे क्षरन्तु॒ यो नः॒ सेदु॒रप्रि॑ये॒ तं नि द॑ध्मः। प॒वित्रे॑ण पृथिवि॒ मोत्पु॑नामि ॥
स्वर सहित पद पाठशु॒ध्दा: । न॒: । आप॑: । त॒न्वे᳡ । क्ष॒र॒न्तु॒ । य: । न॒: । सेदु॑: । अप्रि॑ये । तम् । नि । द॒ध्म॒: । प॒वित्रे॑ण । पृ॒थि॒वि॒ । मा॒ । उत् । पु॒ना॒मि॒ ॥१.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो नः सेदुरप्रिये तं नि दध्मः। पवित्रेण पृथिवि मोत्पुनामि ॥
स्वर रहित पद पाठशुध्दा: । न: । आप: । तन्वे । क्षरन्तु । य: । न: । सेदु: । अप्रिये । तम् । नि । दध्म: । पवित्रेण । पृथिवि । मा । उत् । पुनामि ॥१.३०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 30
विषय - शुद्धा आपः
पदार्थ -
१. (शुद्धाः आपः) = शुद्ध जल नः तन्वे हमारे शरीर के लिए व शक्ति-विस्तार के लिए (क्षरन्तु) = क्षरित हों-बहें। (यः नः सेदः) = जो भी हमारा विनाशक तत्त्व है, (तम) = उसको (अप्रिये निदध्मः) = सबके अप्रीति के कारणभूत शत्रु में स्थापित करते हैं। विनाशक तत्व हमसे दूर हों। ये उनको प्राप्त हों जो सारे समाज के विद्विष्ट हैं। २. (पृथिवि) = विस्तृत भूमे ! मैं (पवित्रेण) = तेरे इस पवित्र जल से (मा उत्पुनामि) = अपने को शुद्ध करता हूँ।
भावार्थ -
पृथिवी से उद्भूत ये जल-कूप आदि से प्राप्त जल हमारे विनाशक तत्त्वों को नष्ट करके हमें पवित्र करते हैं।
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