अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 44
नि॒धिं बिभ्र॑ती बहु॒धा गुहा॒ वसु॑ म॒णिं हिर॑ण्यं पृथि॒वी द॑दातु मे। वसू॑नि नो वसु॒दा रास॑माना दे॒वी द॑धातु सुमन॒स्यमा॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठनि॒ऽधिम् । बिभ्र॑ती । ब॒हु॒ऽधा । गुहा॑ । वसु॑ । म॒णिम् । हिर॑ण्यम् । पृ॒थि॒वी । द॒दा॒तु॒ । मे॒ । वसू॑नि । न॒: । व॒सु॒ऽदा: । रास॑माना । दे॒वी । द॒धा॒तु॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना ॥१.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु मे। वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना ॥
स्वर रहित पद पाठनिऽधिम् । बिभ्रती । बहुऽधा । गुहा । वसु । मणिम् । हिरण्यम् । पृथिवी । ददातु । मे । वसूनि । न: । वसुऽदा: । रासमाना । देवी । दधातु । सुऽमनस्यमाना ॥१.४४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 44
विषय - वसुदा, वसुधा
पदार्थ -
१. (गुहा) = अपनी गुहाओं में (बहुधा निधिं बिभ्रती) = विविध कोशों को धारण करती हुई (पृथिवी) = यह भूमि (मे) = मेरे लिए (वसु) = धन को (मणिम्) = वैदूर्य आदि मणियों को तथा (हिरण्यम्) = सुवर्ण को (ददातु) = दे। २. यह (वसुदा:) = धनों को देनेवाली (देवी) = दिव्यगुणयुक्त पृथिवी (रासमाना) = वसुओं को देती हुई, (सुमनस्यामाना) = हमारे मन का उत्तम साधन बनती हुई (वसूनि दधातु) = वसुओं को हमारे लिए दे। यह भूमिमाता हमारे लिए वसुओं का धारण करे।
भावार्थ -
यह पृथिवी वसुधा है। यह हमारे लिए वसुदा हो। वसुओं को प्राप्त करके हम सौमनस्यवाले हों।
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