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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त

    अ॑संबा॒धं ब॑ध्य॒तो मा॑न॒वानां॒ यस्या॑ उ॒द्वतः॑ प्र॒वतः॑ स॒मं ब॒हु। नाना॑वीर्या॒ ओष॑धी॒र्या बिभ॑र्ति पृथि॒वी नः॑ प्रथतां॒ राध्य॑तां नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒म्ऽबा॒धम् । म॒ध्य॒त: । मा॒न॒वाना॑म् । यस्या॑: । उ॒त्ऽवत॑: । प्र॒ऽवत॑: । स॒मम् । ब॒हु । नाना॑ऽवीर्या: । ओष॑धी: । या । बिभ॑र्ति । पृ॒थि॒वी । न॒: । प्र॒थ॒ता॒म् । राध्य॑ताम् । न॒: ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असंबाधं बध्यतो मानवानां यस्या उद्वतः प्रवतः समं बहु। नानावीर्या ओषधीर्या बिभर्ति पृथिवी नः प्रथतां राध्यतां नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असम्ऽबाधम् । मध्यत: । मानवानाम् । यस्या: । उत्ऽवत: । प्रऽवत: । समम् । बहु । नानाऽवीर्या: । ओषधी: । या । बिभर्ति । पृथिवी । न: । प्रथताम् । राध्यताम् । न: ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. पृथिवी 'पृथिवी' है-सचमुच पर्याप्त विस्तारवाली है। यह अपनी गोद में मानवों के लिए पर्याप्त स्थान रखती है। उनके परस्पर सम्बाध-टकराने की यहाँ आवश्कता ही नहीं। सामान्यतः एक देश व दूसरे देश के मध्य में पर्वत व नदी, सिन्धु आदि की इसप्रकार की एक स्वाभाविक सीमा-सी बनी हुई है कि एक-दूसरे से लड़ने की सुविधा व सम्भावना ही कम हो जाती है। इसप्रकार (मानवानाम्) = मनुष्यों के (असम्बाधम् मध्यत:) = परस्पर न टकराने की व्यवस्था करती हुई, (यस्या:) = जिस पृथिवी के (उद्वतः) = [Height, elevatives, declivity, precipice] उच्चस्थल, (प्रवत:) = [Declivity, precipice] ढलान व (समम्) = समस्थल (बहु) = बहुत हैं। (या) = जो प्रथिवी (नानावीर्यः) = विविध शक्तियोंवाली (ओषधीः) = ओषधियों को (बिभर्ति) = धारण करती है, वह पृथिवी (नः प्रथताम्) = हमारी शक्तियों का विस्तार करे और (नः राध्यताम्) = हमारे लिए कार्यों में सिद्धि को प्राप्त करानेवाली हो।

    भावार्थ -

    पृथिवी विशाल है-समझदार व्यक्त्यिों को यहाँ परस्पर टकराने [सम्बाध] को आवश्यकता नहीं। पृथिवी के उच्चस्थल, ढलान व समस्थल बहुत हैं। वे भिन्न-भिन्न स्वभाववाले व्यक्तियों के रहने के लिए पर्याप्त हैं। यह पृथिवी विविध ओषधियों को जन्म देती हुई हमें शक्ति सम्पन्न बनाती है और सफल करती है।

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