अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 39
यस्यां॒ पूर्वे॑ भूत॒कृत॒ ऋष॑यो॒ गा उदा॑नृ॒चुः। स॒प्त स॒त्रेण॑ वे॒धसो॑ य॒ज्ञेन॒ तप॑सा स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑म् । पूर्वे॑ । भू॒त॒ऽकृत॑: । ऋष॑य: । गा: । उत् । आ॒नृ॒चु: । स॒प्त । स॒त्त्रेण॑ । वे॒धस॑: । य॒ज्ञेन॑ । तप॑सा । स॒ह ॥१.३९॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो गा उदानृचुः। सप्त सत्रेण वेधसो यज्ञेन तपसा सह ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याम् । पूर्वे । भूतऽकृत: । ऋषय: । गा: । उत् । आनृचु: । सप्त । सत्त्रेण । वेधस: । यज्ञेन । तपसा । सह ॥१.३९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 39
विषय - सप्तसन्न, यज्ञ व तप
पदार्थ -
१. (यस्याम्) = जिस भूमि पर (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (भूतकृतः) = [right, proper, fit भूत] उचित कर्मों को करनेवाले (ऋषय:) = तत्त्वद्रष्टा व वासनाओं का संहार करनेवाले ज्ञानीलोग (गाः उदानच:) = ज्ञानवाणियों के द्वारा प्रभु का स्तवन [अर्चन] करते हैं। २. इस भूमि पर (वेधसः) = ज्ञानी लोग [learned man] (सप्तसत्रेण) = देवपूजन से तथा (तपसा सह) = तप के साथ सदा ज्ञानवाणियों का उच्चारण करते हैं।
भावार्थ -
आदर्श राष्ट्र में लोग अपना पालन व पूरण करते हैं, यथार्थ बातों को करते हैं, वासनाओं का संहार करते हैं। यहाँ ज्ञानी लोग 'सससत्र, यज्ञ व तप' से युक्त होते हैं।
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