अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
सूक्त - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भूमि सूक्त
अ॒ग्निवा॑साः पृथि॒व्यसित॒ज्ञूस्त्विषी॑मन्तं॒ संशि॑तं मा कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निऽवा॑सा: । पृ॒थि॒वी । अ॒सि॒त॒ऽज्ञू: । त्विषि॑ऽमन्तम् । सम्ऽशि॑तम् । मा॒ । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निवासाः पृथिव्यसितज्ञूस्त्विषीमन्तं संशितं मा कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निऽवासा: । पृथिवी । असितऽज्ञू: । त्विषिऽमन्तम् । सम्ऽशितम् । मा । कृणोतु ॥१.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 21
विषय - असित-ज्ञुः
पदार्थ -
१. (पृथिवी) = यह भूमि (अग्निवासा:) = अग्निरूप वस्त्र को धारण किये हुए है तथा इसमें अग्नि का वास है-पृथिवी के अन्दर भी अग्नि तत्त्व है और बाहर भी। (असित-ज्ञुः) = यह 'अग्निवासा: पृथिवी' उस अबद्ध, [अ सक्त] प्रभु का ज्ञान दे रही है। इसपर उत्पन्न एक-एक पत्र-पुष्प उस प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहा है। २. यह पृथिवी (मा) = मुझे (त्विषीमन्तम्) = ज्ञान की दीप्ति वाला व (संशितम्) = तेजस्वी (कृणोतु) = करे। इसका एक-एक पदार्थ मेरी उत्सुकता को बढ़ाता हुआ मेरी ज्ञानवृद्धि का कारण बने और इसके पदार्थ मुझसे ठीक उपयुक्त हुए-हुए मुझे तेजस्वी बनाएँ।
भावार्थ -
यह अग्निवासा पृथिवी मुझे भी ज्ञानाग्नि व तेजस्विता की अनिवाला बनाए।
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