अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 43
सूक्त - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - विराडास्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - भूमि सूक्त
यस्याः॒ पुरो॑ दे॒वकृ॑ताः॒ क्षेत्रे॒ यस्या॑ विकु॒र्वते॑। प्र॒जाप॑तिः पृथि॒वीं वि॒श्वग॑र्भा॒माशा॑माशां॒ रण्यां॑ नः कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑: । पुर॑: । दे॒वऽकृ॑ता: । क्षेत्रे॑ । यस्या॑: । वि॒ऽकु॒र्वते॑ । प्र॒जाऽप॑ति: । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽग॑र्भाम् । आशा॑म्ऽआशाम् । रण्या॑म् । न॒: । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्याः पुरो देवकृताः क्षेत्रे यस्या विकुर्वते। प्रजापतिः पृथिवीं विश्वगर्भामाशामाशां रण्यां नः कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठयस्या: । पुर: । देवऽकृता: । क्षेत्रे । यस्या: । विऽकुर्वते । प्रजाऽपति: । पृथिवीम् । विश्वऽगर्भाम् । आशाम्ऽआशाम् । रण्याम् । न: । कृणोतु ॥१.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 43
विषय - नगर व क्षेत्र
पदार्थ -
१. (यस्या:) = जिस पृथिवी के (पुरः) = नगर (देवकृता:) = ज्ञानी [समझदार] शिल्पियों द्वारा बनाये गये हैं-अतएव जिनमें स्वास्थ्य आदि के साधनों की सुव्यवस्था है। (यस्याः) = जिस पृथिवी के (क्षेत्रे) = खेतों में (विकुर्वते) = वैश्य लोग विशिष्ट कृषि कमों को करते हैं, उस (विश्वगर्भाम्) = सब प्राणियों को अपने में धारण करनेवाली (पृथिवीम्) = पृथिवी को (आशाम् आशाम्) = प्रत्येक दिशा में (प्रजापति:) = वे प्रभु (न:) = हमारे लिए (रण्यां कृणोतु) = रमणीय करें।
भावार्थ -
इस पृथिवी पर उत्तम नगरों का देवों द्वारा निर्माण हो । यहाँ क्षेत्रों में वैश्य विविध बीज वपन आदि कर्मों को करें। प्रभु इस पृथिवी को हमारे लिए सर्वत: रमणीय बनाएँ।
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