अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 52
सूक्त - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा परातिजगती
सूक्तम् - भूमि सूक्त
यस्यां॑ कृ॒ष्णम॑रु॒णं च॒ संहि॑ते अहोरा॒त्रे विहि॑ते॒ भूम्या॒मधि॑। व॒र्षेण॒ भूमिः॑ पृथि॒वी वृ॒तावृ॑ता॒ सा नो॑ दधातु भ॒द्रया॑ प्रि॒ये धाम॑निधामनि ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑म् । कृ॒ष्णम् । अ॒रु॒णम् । च॒ । संहि॑ते इति॒ सम्ऽहि॑ते । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । विहि॑ते॒ इति॒ विऽहि॑ते । भूम्या॑म् । अधि॑ । व॒र्षेण॑ । भूमि॑: । पृ॒थि॒वी । वृ॒ता । आऽवृ॑ता । सा । न॒: । द॒धा॒तु॒ । भ॒द्रया॑ । प्रि॒ये । धाम॑निऽधामनि ॥१.५२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यां कृष्णमरुणं च संहिते अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि। वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सा नो दधातु भद्रया प्रिये धामनिधामनि ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याम् । कृष्णम् । अरुणम् । च । संहिते इति सम्ऽहिते । अहोरात्रे इति । विहिते इति विऽहिते । भूम्याम् । अधि । वर्षेण । भूमि: । पृथिवी । वृता । आऽवृता । सा । न: । दधातु । भद्रया । प्रिये । धामनिऽधामनि ॥१.५२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 52
विषय - दिन-रात, वृष्टि, गौवें व प्रिय तेज
पदार्थ -
१. (यस्यां भूम्याम् अधि) = जिस भूमि पर (कृष्णं अरुणं च) = एक तो अन्धकारमय, परन्तु दूसरा प्रकाशमय (अहोरात्रे) = रात्रि और दिन (संहिते) = परस्पर मिलाकर रखे हुए (विहिते) = स्थापित किये गये हैं। दिन के बाद रात्रि आती है और रात्रि के बाद दिन। इसप्रकार ये परस्पर संहित' [सम्बद्ध] हैं। एक प्रकाशमय है, दूसरी अन्धकारमय। २. यह (भूमि:) = पृथिवी समय-समय पर (वर्षेण वृता) = वृष्टिजल से आच्छादित होती रहती है और इसप्रकार यह (भद्रया आवृता) = [भद्रा A cow] गौओं से आवृत होती है। वृष्टि से चारे की कमी नहीं रहती और ये गौवें खूब फूलती फलती हैं। (सा) = वह वृष्टि व गौवों से आच्छादित भूमि हमें (न:) = हमसे (प्रिये) = प्रीति करनेवाले (धामनिधामनि) = प्रत्येक तेज [Energy] में दधातु स्थापित करे।
भावार्थ -
प्रभु ने हमारे जीवन के लिए दिन व रात का क्रम बाँधा है। इसपर वृष्टि व गौवों की व्यवस्था की है। वे गौवें हमारे प्रिय तेज का कारण बनती है-अपने दूध के द्वारा हमें तेजस्विता प्राप्त कराती हैं।
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