अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 60
याम॒न्वैच्छ॑द्ध॒विषा॑ वि॒श्वक॑र्मा॒न्तर॑र्ण॒वे रज॑सि॒ प्रवि॑ष्टाम्। भु॑जि॒ष्यं पात्रं॒ निहि॑तं॒ गुहा॒ यदा॒विर्भोगे॑ अभवन्मातृ॒मद्भ्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयाम् । अ॒नु॒ऽऐच्छ॑त् । ह॒विषा॑ । वि॒श्वऽक॑र्मा । अ॒न्त: । अ॒र्ण॒वे । रज॑सि । प्रऽवि॑ष्टाम् । भु॒मि॒ष्य᳡म् । पात्र॑म् । निऽहि॑तम् । गुहा॑ । यत् । आ॒वि: । भोगे॑ । अ॒भ॒व॒त् । मा॒तृ॒मत्ऽभ्य॑: ॥१.६०॥
स्वर रहित मन्त्र
यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मान्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम्। भुजिष्यं पात्रं निहितं गुहा यदाविर्भोगे अभवन्मातृमद्भ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठयाम् । अनुऽऐच्छत् । हविषा । विश्वऽकर्मा । अन्त: । अर्णवे । रजसि । प्रऽविष्टाम् । भुमिष्यम् । पात्रम् । निऽहितम् । गुहा । यत् । आवि: । भोगे । अभवत् । मातृमत्ऽभ्य: ॥१.६०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 60
विषय - 'भुजिष्यं पात्रम्
पदार्थ -
१. (अर्णवे अन्त:) = महान् प्रभु के अन्दर, (रजसि प्रविष्टाम्) = अन्तरिक्ष में प्रविष्ट [स्थित] (याम्) = जिस पृथिवी को विश्वकर्मा समस्त संसार का निर्माता प्रभु (हविषा) = हवि के हेतु से (अन्वैच्छत्) = चाहता है। प्रभु की कामना से ही सृष्टि होती है 'सोऽकामयत०'। प्रभु वस्तुतः इस पृथिवी को इसलिए बनाते हैं कि इसपर रहनेवाले मनुष्य इस पृथिवी पर यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हों-इसे 'देवयजनी' बना दें। यह पृथिवी अपने कारणभूत अणुसमुद्र में निहित है अन्तरिक्ष में यह स्थित है। २. (भुजिष्य पात्रम्) = भोग्य सन्तानादि से सुसज्जित पात्र के समान यह पृथिवी है। यह पृथिवी (निहितं गुहायाम्) = अपने कारणभूत अणुसमुद्रों की गुफा में निहित है। यह वह पात्र है (यत्) = जोकि (भोगे) = भोग के अवसर आने पर (मातृमद्भ्यः) = पृथिवी को अपनी माता जाननेवाले इन जीवों के लिए (आविः अभवन्) = प्रकट हो जाती है।
भावार्थ -
पृथिवी पहले अणुसमुद्र के रूप में अन्तरिक्ष में प्रविष्ट हुई-हुई होती है। प्रभु इसका निर्माण करते हैं, ताकि जीव इसपर यज्ञों को कर सकें। यह पृथिवी एक 'भुजिष्य पात्र' के रूप में हैं। यह पात्र भोग का अवसर आने पर प्रभु के द्वारा प्रकट कर दिया जाता है। जो पृथिवी को माता के रूप में देखते हैं, उन्हें सब आवश्यक पोषण-सामग्नी इस भूमिमाता से प्राप्त होती है।
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