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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त

    वि॑श्व॒स्वं मा॒तर॒मोष॑धीनां ध्रु॒वां भूमिं॑ पृथि॒वीं धर्म॑णा धृ॒ताम्। शि॒वां स्यो॒नामनु॑ चरेम वि॒श्वहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्व॒ऽस्व᳡म् । मा॒तर॑म् । ओष॑धीनाम् । ध्रु॒वाम् । भूमि॑म् । पृ॒थि॒वीम् । धर्म॑णा । धृ॒ताम् । शि॒वाम् । स्यो॒नाम् । अनु॑ । च॒रे॒म॒ । वि॒श्वहा॑ ॥१.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वस्वं मातरमोषधीनां ध्रुवां भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम्। शिवां स्योनामनु चरेम विश्वहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वऽस्वम् । मातरम् । ओषधीनाम् । ध्रुवाम् । भूमिम् । पृथिवीम् । धर्मणा । धृताम् । शिवाम् । स्योनाम् । अनु । चरेम । विश्वहा ॥१.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 17

    पदार्थ -

    १. (विश्वस्वम्) = [सः] सम्पूर्ण धनों को उत्पन्न करनेवाली, (ओषधीनां मातरम्) = ओषधियों को मातृभूत (ध्रुवाम्) = मर्यादा में स्थित, (पृथिवीम्) = अतिशयेन विस्तारवाली (भूमिम्) = इस भूमि पर (विश्वहा) = सदा (अनुचरेम्) = अनुकूलता से विचरण करें। यह पृथिवी इतनी विशाल है कि यहाँ परस्पर संघर्ष की आवश्यकता ही नहीं। २. इस पृथिवी पर हम विचरण करें जोकि (धर्मणा धृताम्) = धर्म से धारण की गई है, अर्थात् जब तक यहाँ रहनेवाले मनुष्य धर्म का पालन करते हैं तब तक यह पृथिवी भी सबका धारण करती हुई सुन्दर बनती है। (शिवाम्) = यह कल्याणकारिणी है और (स्योनाम्) = सुख-दा है। अध्यात्म दृष्टिकोण से व भौतिक दृष्टिकोण से दोनों ही दृष्टिकोणों से यह हमारा शुभ करती है।

    भावार्थ -

    यह पृथिवी सब धनों को उत्पन्न करती है, ओषधियों को जन्म देती है। यह हमारे लिए मातृवत् कल्याणकारिणी है। धर्म के द्वारा इसका धारण होता है [धर्मों धारयते प्रजाः]।

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