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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती सूक्तम् - भूमि सूक्त

    यस्यां॒ पूर्वे॑ पूर्वज॒ना वि॑चक्रि॒रे यस्यां॑ दे॒वा असु॑रान॒भ्यव॑र्तयन्। गवा॒मश्वा॑नां॒ वय॑सश्च वि॒ष्ठा भगं॒ वर्चः॑ पृथि॒वी नो॑ दधातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्या॑म् । पूर्वे॑ । पू॒र्व॒ऽज॒ना: । वि॒ऽच॒क्रि॒रे । यस्या॑म् । दे॒वा: । असु॑रान् । अ॒भि॒ऽअव॑र्तयन् । गवा॑म् । अश्वा॑नाम् । वय॑स: । च॒ । वि॒ऽस्था । भग॑म्। वर्च॑: । पृ॒थि॒वी । न॒: । द॒धा॒तु॒ ॥१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन्। गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्याम् । पूर्वे । पूर्वऽजना: । विऽचक्रिरे । यस्याम् । देवा: । असुरान् । अभिऽअवर्तयन् । गवाम् । अश्वानाम् । वयस: । च । विऽस्था । भगम्। वर्च: । पृथिवी । न: । दधातु ॥१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (पूर्वजना:) = श्रेष्ठ प्रथमस्थान में स्थित, सात्त्विकवृत्ति के पुरुष विचक्रिरे विशिष्ट कर्मों को करते हैं। (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (असुरान् अभ्यवर्तयन्) = असुरों को आक्रान्त करते हैं [अभिवृत् to attack, assail] अर्थात् जहाँ असुर प्रबल नहीं हो पाते। २. वह (गवाम्) = गौओं की (अश्वानाम्) = घोड़ों की (च) = और (वयसः) = पक्षियों की (विष्ठाम्) = [वि-स्था] विविध रूप से रहने का स्थान बनी हुई (पृथिवी) = भूमि (न:) = हममें (भगं वर्च:) = ऐश्वर्य और तेज (दधातु) = धारण कराये। यह पृथिवी हमारे लिए ऐश्वर्य व तेज को देनेवाली हो।

    भावार्थ -

    इस पृथिवी पर पालन व पूरण करनेवाले श्रेष्ठजन विविध कर्तव्य-कर्मों को करते हैं। यहाँ देव असुरों को प्रबल नहीं होने देते। यह पृथिवी गौओं, घोड़ों व पक्षियों का विशिष्ट स्थिति-स्थान है। यह पृथिवी हमारे लिए ऐश्वर्य व तेज का धारण करे।

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