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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 47
    सूक्त - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - षट्पदानुष्टुब्गर्भा परातिशक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त

    ये ते॒ पन्था॑नो ब॒हवो॑ ज॒नाय॑ना॒ रथ॑स्य॒ वर्त्मान॑सश्च॒ यात॑वे। यैः सं॒चर॑न्त्यु॒भये॑ भद्रपा॒पास्तं पन्था॑नं जयेमानमि॒त्रम॑तस्क॒रं यच्छि॒वं तेन॑ नो मृड ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ते॒ । पन्था॑न: । ब॒हव॑: । ज॒न॒ऽअय॑ना: । रथ॑स्य । वर्त्म॑ । अन॑स: । च॒ । यात॑वे । यै: । स॒म्ऽच॑रन्ति । उ॒भये॑ । भ॒द्र॒ऽपा॒पा: । तम् । पन्था॑नम् । ज॒ये॒म॒ । अ॒न॒मि॒त्रम् । अ॒त॒स्क॒रम् । यत् । शि॒वम् । तेन॑ । न॒: । मृ॒ड॒ ॥१.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते पन्थानो बहवो जनायना रथस्य वर्त्मानसश्च यातवे। यैः संचरन्त्युभये भद्रपापास्तं पन्थानं जयेमानमित्रमतस्करं यच्छिवं तेन नो मृड ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ते । पन्थान: । बहव: । जनऽअयना: । रथस्य । वर्त्म । अनस: । च । यातवे । यै: । सम्ऽचरन्ति । उभये । भद्रऽपापा: । तम् । पन्थानम् । जयेम । अनमित्रम् । अतस्करम् । यत् । शिवम् । तेन । न: । मृड ॥१.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 47

    पदार्थ -

    १. हे पृथिवि ! (ये) = जो (ते-बहवः) = बहुत-से (जनायना:) = [जन+अयन्] मनुष्यों के जाने के मार्ग हैं, (रथस्य वर्त्म) = [मध्य में जो] रथ का मार्ग है, (च) = और (अनसः यातवे) = बैलगाड़ियों के जाने के लिए जो मार्ग है एवं, सड़क किनारों पर जनमार्ग हैं, मध्य में रथमार्ग हैं, इनके बीच में दोनों ओर गाड़ियों के मार्ग हैं। २. (यै:) = जिनसे (भद्रपापा:) = परोपकारी व स्वार्थी [अच्छे व बुरे] (उभये) = दोनों प्रकार के लोग (संचरन्ति) = बराबर चला करते हैं, हम (तं पन्थानम्) = उस मार्ग को (जयेम) = विजय करें-प्राप्त करें, जोकि (अनमित्रम्) = शत्रुरहित है, तथा (अतस्करम्) = चोर-डाकू से रहित है। हे पृथिवि ! (यत्) = जो (शिवम्) = कल्याणकर पदार्थ है, (तेन नः मृड) = उससे हमें सुखी कर।

    भावार्थ -

    हमारे राष्ट्र में मार्ग सुव्यवस्थित हों-'पैदलमार्ग, शकटमार्ग व रथमार्ग' इसप्रकार मार्ग सुविभक्त हों।

    सबके लिए आने-जाने की सुविधा हो। मागों में शत्रुओं का भय न हो। हमें पृथिवी सुखकर पदार्थों को प्राप्त कराए।

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