अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 57
सूक्त - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - पुरोऽतिजागता जगती
सूक्तम् - भूमि सूक्त
अश्व॑ इव॒ रजो॑ दुधुवे॒ वि ताञ्जना॒न्य आक्षि॑यन्पृथि॒वीं यादजा॑यत। म॒न्द्राग्रेत्व॑री॒ भुव॑नस्य गो॒पा वन॒स्पती॑नां॒ गृभि॒रोष॑धीनाम् ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑:ऽइव । रज॑: । दु॒धु॒वे॒ । वि । तान् । जना॑न् । ये । आ॒ऽअक्षि॑यन् । पृ॒थि॒वीम् । यात् । आजा॑यत । म॒न्द्रा । अ॒ग्र॒ऽइत्व॑री । भुव॑नस्य । गो॒पा: । वन॒स्पती॑नाम् । गृभि॑: । ओष॑धीनाम् ॥१.५७॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्व इव रजो दुधुवे वि ताञ्जनान्य आक्षियन्पृथिवीं यादजायत। मन्द्राग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पतीनां गृभिरोषधीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअश्व:ऽइव । रज: । दुधुवे । वि । तान् । जनान् । ये । आऽअक्षियन् । पृथिवीम् । यात् । आजायत । मन्द्रा । अग्रऽइत्वरी । भुवनस्य । गोपा: । वनस्पतीनाम् । गृभि: । ओषधीनाम् ॥१.५७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 57
विषय - नित्य नव सर्जन
पदार्थ -
१. (इव) = जैसे (अश्वः) = घोड़ा (रज: दुधवे) = धूलि को कम्पित करके दूर कर देता है, उसी प्रकार ये जो लोग (पृथिवीं आक्षियन्) = पृथिवी पर समन्तात् बसे हैं, (तान् जनान्) = उन सब मनुष्यों को, (यात् अजायत) = जब से यह पृथिवी हुई है तब से वि [दुधवे] कम्पित करके दूर करती आयी है। इस पृथिवी पर कोई भी प्राणी स्थिर नहीं है। सभी के ये शरीर नश्वर हैं। २. यह पृथिवी (मन्द्रा) = पुराने को समाप्त करके निरन्तर नये को जन्म देती हुई सचमुच प्रशंसनीय [Praisewor thy] है, (अग्र इत्वरी) = आगे और आगे चलनेबाली है, (भुवनस्य गोपा:) = सब लोकों का-अपने पर होनेवाले प्राणियों का रक्षण करनेवाली है। रक्षण के लिए ही सब (वनस्पतीनाम् ओषधीना गभिः) वनस्पतियों व ओषधियों का अपने में ग्रहण करनेवाली है।
भावार्थ -
यह पृथिवी पुराने शरीरों को समाप्त करके नयों को जन्म दे रही है। यह प्रशंसनीय पृथिवी निरन्तर आगे चलती हुई सब प्राणियों की रक्षक है-रक्षण के लिए ही सब वनस्पतियों को अपने में धारण किये हुए है।
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